लखनऊ : उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और रालोद के बीच हुआ गठबंधन लोकसभा चुनाव के बाद धराशयी हो चुका है। गठबंधन को लेकर मायावती के हालिया बयान ने जहां सूबे की सियासत गरमा दी है, वहीं राजनीतिक समीक्षक इसे अलग नजरिये से देख रहे हैं। वे बसपा सुप्रीमो की बदली रणनीति का मुख्य कारण उपचुनाव नहीं बल्कि 2022 के विधानसभा चुनाव को मान रहे हैं।
जब सपा, बसपा और रालोद के बीच गठबंधन हुआ था तो उसी समय यह तय हो गया था कि लोकसभा चुनाव मायावती के नेतृत्व में और 2022 का विधानसभा चुनाव सपा मुखिया अखिलेश यादव के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। उस समय यह भी तय हुआ था कि मायावती गठबंधन की तरफ से प्रधानमंत्री की उम्मीदवार होंगी और विधानसभा के चुनाव में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रुप में पेश किया जाएगा।
अब लोकसभा चुनाव के बाद जब मायावती प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सकीं तो भविष्य में अखिलेश को वह सूबे की मुख्यमंत्री कैसे मानतीं। ऐसे में उन्होंने उपचुनाव का बहाना बनाकर एकला चलो की राह थाम ली। बसपा वैसे कभी उपचुनाव नहीं लड़ती रही है। इसलिए माया का अकेले उपचुनाव लड़ने का बहाना लोगों के गले नहीं उतर रहा है। सूत्र बताते हैं कि मायावती स्वयं को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर अगले विधानसभा चुनाव में उतरना चाहती हैं। इसीलिए गठबंधन तोड़ने के बावजूद वह उसे भविष्य में बनाए रखने की भी बात कर रही हैं।
दरअसल, बसपा सदैव फायदे के लिए ही किसी दल से समझौता करती है। अपने गठन के करीब 34 साल के इतिहास में बसपा ने जब कभी किसी दल से समझौता किया तो उसकी निगाह सदैव गठबंधन वाले पार्टी के वोट बैंक पर ही रही। इसके अलावा बसपा का इतिहास यह भी बताता है कि मायावती को कभी दूसरे के नेतृत्व में काम करना पसंद नहीं है।
बसपा ने सबसे पहले 1993 में सपा से गठबंधन कर विधानसभा का चुनाव लड़ा था। परिणामस्वरुप राम लहर के बावजूद उस समय गठबंधन की सरकार बनी और तत्कालीन सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए। यह गठबंधन कांशीराम और मुलायम के चलते हुआ था, लेकिन बाद में कांशीराम ने मायावती को बसपा का उपाध्यक्ष और उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया। इसके बाद मायावती को मुलायम का नेतृत्व बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने सरकार गिरा दी। परिणामस्वरुप गेस्टहाउस कांड हुआ।
इसके बाद बसपा की पूरी बागडोर मायावती के हांथ आ गई और उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर 1995, 1997 और 2002 में तीन बार सरकार बनाई लेकिन दूसरे का नेतृत्व न बर्दाश्त कर पाने की हठधर्मिता के चलते ही हर बार उनकी सरकार असमय गिरती गई। मायावती ने 1996 के चुनाव में कांग्रेस से भी गठबंधन किया था लेकिन चुनाव बाद वह गठबंधन भी खत्म हो गया था।
सियासी समीक्षक कहते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने हर बार अपने फायदे के लिए ही दूसरे दलों से समझौता किया। सपा से इनका समझौता मुस्लिम वोट बैंक को लेकर था, जबकि कांग्रेस से समझौता कर इन्होंने दलितों के बोट में सेंध लगाई थीं। वहीं, भाजपा के सहारे मायावती जब तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंची तो इन्होंने सोशल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मणों को साधा और अपने पुराने नारे को बदलते हुए 2007 में प्रदेश में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा शून्य पर सिमट गई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी वह प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन न कर सकी। ऐसे में 2019 के चुनाव में मायावती के सामने अपनी और पार्टी की साख बचाना सबसे बड़ी चुनौती थी। परिणामस्वरुप अपने धुर विरोधी सपा से उन्होंने हांथ मिलाया और लोकसभा में शून्य से दस अंक तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद अब उन्हें सपा फिर अखरने लगी।
सूबे की सियासत के पारखी और वरिष्ठ राजनीतिक समीक्षक डा0 दिलीप अग्निहोत्री का कहना है कि बसपा सुप्रीमो मायावती कभी भी घाटे का सौदा नहीं करती हैं। अपने राजनीतिक फायदे के लिए वह कभी भी किसी भी दल से समझौता कर सकती हैं लेकिन लाभ के बाद गठबंधन से अलग होने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता है। डा0 अग्निहोत्री कहते हैं कि मायावती अपना हर कदम बहुत ही सोच समझकर उठाती हैं। शायद इसीलिए सपा और रालोद से गठबंधन तोड़ते वक्त उन्होंने केवल उतना ही बयान दिया, जिससे अलगाव औपचारिक रूप से हो जाए लेकिन आगे का रास्ता खुला रहे और जरूरत पड़ने पर बातचीत की गुंजाइश बनी रहे।
सियासी समीक्षक यह भी मानते हैं कि प्रदेश में 12 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनावों में बसपा और सपा के अलग-अलग लड़ने से उसका सीधा फायदा सत्तारुढ़ भाजपा को होगा। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता मनीष शुक्ला का दावा है कि उनकी पार्टी न केवल उपचुनाव जीतेगी बल्कि 2022 के विधानसभा चुनाव, जिसके लिए मायावती अभी से रणनीति बनाने लगी हैं, उसमें भी पार्टी दोबारा पूर्ण बहुमत के साथ आयेगी और प्रदेश में सरकार बनाएगी।
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